किसानों का भरोसा जीतने में सरकार नाकाम,देश हो रहा है बदनाम
किसानों का भरोसा जीतने में सरकार नाकाम,देश हो रहा है बदनाम
सुधीर के बोल : – पिछले दिनों से चले आ रहे किसान आंदोलन को सरकार, मीडिया व सामाजिक चेहरे जिस प्रकार से व्यवहार कर रहे है वह किसान आंदोलनकारियों के लिए ही नहीं बल्कि भविष्य में किसी वर्ग का आंदोलन परम्पराओं की संभावनाओं पर विराम लगाने जैसा है।
In में आंदोलन होना इस तथ्य का संकेत माना जाता है कि लोकतंत्र जीवित है। स्वतंत्र भारत कृषि प्रधान देश में इतनी निष्ठुरता किसान के प्रति नहीं देखी गयी। हाड़ कंपकपाने वाली सर्द रातों में 70 किसान की मौतें पर कोई गंभीर चर्चा नहीं हो रही यह तथ्य बताता है कि देश मे सामाजिक संगठन, मीडिया, न्याय व्यवस्था, विपक्ष आदि शून्य स्वेदनाओं को अपना कर फायदा-नुकसान का आकलन कर अपने मायाजाल में जकड़े बैठे है।
भूतपूर्व योग गुरु, भ्रस्टाचार, कालाधन विरोधी व वर्तमान के लाला रामदेव, अण्णा हजारे, भूतपूर्व सैनिक संगठन आदि कृषि बिलों पर अपने विचार पक्ष या विपक्ष पर क्यों नही प्रस्तुत कर रहे है?
अंत्योदय की अवधारणा केवल किताबी आदर्श रह गया है?
इन बिलों को प्रयोग के तौर पर क्या किसी छोटे राज्य में लागू कर सही – गलत का प्रयोगात्मक आकलन नही किया जा सकता? क्योंकि वर्तमान नेतृत्व के पूर्व के आर्थिक निर्णय सकारात्मक नही रहें है जिसका दंश भारतीय सहन कर रहे है और आर्थिक कष्ट में है अतः विचार में ठहराव भी आवश्यक है।
आगें छलांग लगाने के लिए 2 कदम पीछे हटना भी लाभकारी रहता है जो केंद्रीय सरकार को अपनाना चाहिये।
आज की परिस्थिति में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना उत्पादक जो बहुतायत में है गन्ना मूल्य निर्धारित न होने के कारण परेशान है और 2014 से भाजपा का समर्थक रहा है इस किसान आंदोलन से आगामी चुनाव में सत्ताधरियों के लिये नुकसानदेह हो सकता है, वोट देते समय इन सर्द रातों का दर्द भुलाना मुश्किल होगा।
लोकतंत्र में अपने विचार के विरोधी को दुश्मन नही समझा जाता किंतु आज किसी विचार से अलग विचारवान को गद्दार, देशद्रोही आदि से अलंकृत करने की परंपरा अतिवाद का सूचक है।